Thursday, April 14, 2011

वक्त के निशा....

रात रूठी है यहां,

नींद कहां आयेगी..

आओ बैठो,

भूली यादों को समेटे,

कुछ बात करें।

उन बादलों को तलाशें

थोड़ा भीग लें,

उन बादलों में

अश्कों का पानी बाकी है।

उस राह में चलो,

थोड़ा घूम लें....

उस राह में,

तेरे कदमों के निशां बांकी हैं।

इन ठहरी सहमी सांस,

इन धड़कनों को सुनो....

इन में बसा एक अरमान,

अभी बांकी है।

दर्द आंख़ो से पढ़ो,

शब्द जुबा पर नहीं आते....

इस दिल में गहरे,

जख़्मों के निशा बांकी है।

दरीचों से झांको,

देखो दूर तक...

वहां गुजरे हुए,

वक्त के निशा बांकी है।

2 comments:

  1. gujre huve jamane ki ek tikhi yaad jise prastut kiya gaya hai bade hi khoobsurat tareeke se....

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