
आज फिर,
दफअतन फ़ासलों
का अहसास हुआ....
उफ़क में फिर
तलाशने लगी,
दूर तक कुछ
नज़र नहीं आया....
आज वो अश्क भी नहीं जो,
मुझे मालूम है आज फिर,
फिर मेरे वजूद को
झंकझोर देगी
देख कर उसको
इस कदर करीब से,
इस कदर करीब से,
दफअतन फ़ासलों
का अहसास हुआ....
उफ़क में फिर
तलाशने लगी,
सूनी निगाहें वो
माज़ी के मंज़र..
माज़ी के मंज़र..
दूर तक कुछ
नज़र नहीं आया....
बस सहमे सहमे से जज़बात
खला में बिखरे दिखे....
आज वो अश्क भी नहीं जो,
ख़ामोशी को बयां करें....
बस एक दर्द की चुभन है....
मुझे मालूम है आज फिर,
ये बेख्वाब रात
बहुत सताएगी,
बहुत सताएगी,
फिर मेरे वजूद को
झंकझोर देगी
वो आवाज़ बाज़गश्त
और ये तनहाई
फिर रुलाएगी....
फिर रुलाएगी....
अन्दर ही अन्दर बहुत से शब्द हैं पर बयान करने को जुबान पे नहीं आते बस इतना कहना है की वाह क्या लिखा है.
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