Saturday, March 12, 2011

अंतर्व्यथा

(जापान में सोनामी के कहर से पीड़ितों की अन्तर्दशा को प्रतिबिंबित करते हुए समर्पित )

रह जायेंगी दास्ताँ गुजरे जमाने की

हम रहें ना रहें।

लहरें समन्दर में उठेंगी,

रेत में बसे शहर यूं ही बह जायेंगें

हम रहें ना रहें।

कही खामोशियां सिमटी होंगीं

कहीं तूफ़ानों के साये होंगें,

ये दिन यूं ही ढल जायेगा,

ये रात यूं ही सुलायेगी,

हम रहें ना रहें।

गर्मियों में झुलसी धरती को

ये बारिसें फ़िर भिगोयेंगी,

उजड़े चमन में बहारें लौट कर आयेंगी,

खिलेंगे फ़ूल, कलियां फ़िर मुस्करायेंगी

हम रहें ना रहें।

सर्दियों में दूर तक फ़ैली होगी बर्फ़ की चादर,

रात में चांदनी यूं ही उजाला फ़हरायेगी,

सर्द रातों में हर तरफ़ विरानगी होगी,

शोख हवा यूं ही छू के गुजर जायेगी,

हम रहें ना रहें।

उदास लम्हों के बाद,

फ़िर ख़ुशी के साये होंगें।

गहरी काली रात में,

वही ख़्वाब वही अहसास होंगें,

लोग बिछुड़ेगें मिलेंगें, ख़ुशी की बात होगी,

मौत के बाद फ़िर जिन्दगी मुस्करायेगी,

हम रहें ना रहें।

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