Friday, April 15, 2011

तुम ना जाने कहां गुम हो गये....

तुम ना जाने अंधेरों में,

कहां गुम हो गये....

वक्त बेचारा परेशान,

तुम्हें ढूँढता रहा.

वो रात जैसे ,

कयामत ले के आयी थी....

सवेरा मानो,

ख़ामोशियों में खो गया था....

हर तरफ़ सिसकियां थी,

धड़कन थम सी गयी थी,

किसी पत्ते ने गिर कर

किसी फ़ूल को मसल दिया,

किसी तूफ़ान ने आकर

साहिल पे डुबो दिया।

वो दूर रोशनी का दिया,

जिसे देख कोई वर्षों जिया

आज अंधेरों में गुम हो गया।

किसी कि पलकों में बसा ख़्वाब,

यूं ही टूट कर बिखर गया।

तुम ना जाने अंधेरों में,

कहां गुम हो गये....

वक्त बेचारा परेशान,

तुम्हें ढूँढता रहा.

Thursday, April 14, 2011

इबादत ........

यूँ तो मंदिरों में आज भी,

जल रहे हैं दिये ,

हजारों की भीड़ में वो,

दस्ते-दुआ1 याद है।

उसके दयार पर,

मुख़्तसर2 बातें करो,

उसे मंज़र वो,

चश्मे-पुर-आब3 याद है।

हमने उस को सजदे,

बहुत बेसदा4 किये,

उसे वो बेज़ा5

मतालब6 याद है।


1-प्रार्थना का हाथ, 2-संक्षिप्त, 3-आंसू भरी आंखे, 4-बिना आवाज,

5- बेकार, 6- मांग

वक्त के निशा....

रात रूठी है यहां,

नींद कहां आयेगी..

आओ बैठो,

भूली यादों को समेटे,

कुछ बात करें।

उन बादलों को तलाशें

थोड़ा भीग लें,

उन बादलों में

अश्कों का पानी बाकी है।

उस राह में चलो,

थोड़ा घूम लें....

उस राह में,

तेरे कदमों के निशां बांकी हैं।

इन ठहरी सहमी सांस,

इन धड़कनों को सुनो....

इन में बसा एक अरमान,

अभी बांकी है।

दर्द आंख़ो से पढ़ो,

शब्द जुबा पर नहीं आते....

इस दिल में गहरे,

जख़्मों के निशा बांकी है।

दरीचों से झांको,

देखो दूर तक...

वहां गुजरे हुए,

वक्त के निशा बांकी है।

Sunday, April 10, 2011

दर्द की ताबिश......

टकरा के साहिल से,
रेजा-रेजा हो के बिखर गए,
तसोवरात मौजो के,
ये अलग बात है,
देखने वालों को,
एक खूबसूरत,
कौस-ए कुज़ह नज़र आया......

बज़्म को रोशन करती रही
एक बेजुबान लौ,
शमा से पिघला हुआ मौम,
बयान करता रहा,
दर्द की ताबिश,
देखने वालों को ,
एक खूबसूरत जौ नज़र आयी....

इसी तरह नफस-नफस,
मरती रही
एक जिंदगी,
बीते लम्हों का दर्द,
बयां करती रही,
देखने वालों
को
एक खूबसूरत,
ग़ज़ल नज़र आयी.

वो तेरी मुक़द्दस याद..

वो तेरी मुक़द्दस याद है,
जिसकी ना कोई सुबह है,
ना कोई रात है..
हर सिम्त में बिखरी है...
मगर गुमनाम है.

जिंदगी की तंग गलियों में,

जज्बात टकरा ही जाते है .....
चश्मे पैमाने है कि ,
रह-रह के छलक ही जाते हैं..

गुज़रते है जब भी,

तेरे दर से,
तेरे नक़्शे-पा, आज भी,
मुकम्मल नज़र आते हैं.

फुर्कत...


कौस--कुज़ह की तरह,
ये जिंदगी रंगीन हुआ करती थी,
आज सभी रंग खला में बिखरने के तुफैल,
जिन्दगी बर्फ की सफ़ेद चादर सी,
बेरंग नज़र आती है......



पास
कुछ भी नहीं है,
तसव्वर
के सिवा,
हर तस्वीर पे सूरत,
तेरी नज़र आती है.....

किताब--जीस्त में कैद हैं,
गुमगुस्ता लम्हे,
एक भूली हुई सी याद है,
जो बेवक्त चली आती है,........

उफक में डूबते सूरज की जौ में,
तेरे बालों का अफशा नज़र आता है,
शादाब हवा जब भी छूती है,
ऐसा लगता है जैसे तेरा लम्स हो.

Wednesday, April 6, 2011

इस कदर ना हो...

फासला हो पर

इस कदर ना हो....

दूर हो के भी कोई,

इस कदर करीब ना हो।



चाहो किसी को

ना इस कदर...

कि तेरे चाहने की,

उसको को खबर ना हो।


गुमसुम दरीचों से

झाँकों ना इस तरह ....

कि तुम आओ भी और,

उसको को ख़बर ना हो।


अपनी बेबसी में यूं

सिसका ना करो....

कि तेरी चश्मे-पुर-आब का,

उस पर असर ना हो।


औराक के पन्नों में

गज़ल बन कर ना रहो..

कि तुम्हें पढ़े कोई और,

तुम्ही को ख़बर ना हो।

Friday, April 1, 2011

बयान किस से करें....

खरीद दार बेकरार है
पर किस तरह ये जिंदगी
नीलाम है,
बयान किस से करें....

सुबह की उम्मीद में ,
जागी है रात तनहा,
अब फिर हो गयी है शाम,
बयान किस से करें..


गहरे जख्म ,
भर गए लेकिन,
बचे हैं उन के निशां,
बयान किस से करें....

चली हैं आंधियां
वक्त की ऐसी,
ढहे हैं पक्के मकान,
बयान किस से करें..

साहिल पे पहुँचते ही,
मौजों ने डूबा दी
कश्ती,
बचे हैं आज भी,
तूफानों के निशां,
बयान किस से करें..

तारीकी में,
साया तक नज़र नहीं आता,
ढूँढ़ते फिर रहे,
फिर भी,
तेरे क़दमों के निशां,
बयान किस से
करें..